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प्रेम ही ईश्वर है Love is God. God is Love.
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योग पद्धति >> योग का क्रम >> श्रवण श्रवणयोग साधना में श्रवण का अर्थ है ईश्वर सम्बन्धी सदग्रंथों का अध्ययन करना, ईश्वर की कथाओं को सुनना व पढना, गुरु के मुख से ईश्वर की कथाओं व योग सिद्धांतों को सुनना. साधक चाहे किसी भी मार्ग (हठ योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग, राज योग इत्यादि) से चले, गुरु के सान्निध्य में या बिना गुरु के चले, योग साधना के क्रम में उसे श्रवण करना ही पड़ता है. योग पद्धति में योग साधना के पहले क्रम दीक्षा में गुरु शिष्य का शुद्धिकरण करते हैं, और साथ ही उसे ईश्वर सम्बन्धी ग्रन्थ आदि साधन भी स्वाध्याय के लिए प्रदान करते हैं और स्वयं भी शिष्य को साथ रखकर अनेक प्रकार से उपदेश करते हैं. क्योंकि दीक्षा का अर्थ ही है शिष्य या साधक को ईश्वर सम्बन्धी रहस्य को समझने के योग्य बनाना और जब तक उसे ईश्वर सम्बन्धी रहस्य बताया नहीं जायेगा वह उसे समझेगा कैसे? इसलिए शिष्य को दीक्षा के बाद जब तक मोह दूर न हो जाये तब तक ईश्वर सम्बन्धी रहस्य पढ़कर या सुनकर जानने ही होते हैं. ईश्वर सम्बन्धी रहस्य का अर्थ है कि ईश्वर साक्षात्कार (परमात्मबोध) किस प्रकार किया जाये, भगवन को कैसे देखें, कौन-कौन सी दृष्टियाँ या युक्तियाँ हैं जिनके माध्यम से अज्ञान का मोहान्धकार दूर होता है. सारांश रूप से ईश्वर प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर एकमात्र परमात्मा के तत्त्व-रहस्य सहित ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा से, मन में स्थित समस्त इच्छाओं, भावों का, विचारों का (झूठ, चोरी, हिंसा, व्यभिचार, बलात्कार, छल, दुर्व्यसन, प्रमाद आदि) का पूर्ण रूप से त्याग (अर्थात इन्हें पुनः न करने का संकल्प लेना) करके, ईश्वर में भक्ति व आस्था रखकर सत-शास्त्रों का अध्ययन करना व सत्पुरुषों का संग करके उनसे महावाक्यों व कथा का श्रवण करना, यही श्रवण है. श्रवण का लक्ष्य है ईश्वर के चरणों में प्रेम उत्पन्न हो जाये. जब ईश्वर की कथा सुनते-सुनते, सद्ग्रंथों का अध्ययन करते करते ईश्वर के प्रति मन में प्रेम उत्पन्न होने लगता हैं तो सांसारिक वस्तुओं से मन हटने लगता है, अब वे अच्छी नहीं लगतीं. अपनी आवश्यकताओं एवं वासनाओं को क्षीण करते हुए सत्शास्त्रों का अध्ययन एवं श्रवण करने से साधक के हृदय में सत्व गुण का आविर्भाव होता है. सत्व गुण का उदाहरण है सत्य बोलना, अहिंसा, चोरी न करना (अस्तेय), संग्रह नहीं करना (अपरिग्रह), ब्रह्मचर्य (वीर्य रक्षा), शौच (बाहर भीतर की शुद्धि), संतोष, तप (ईश्वर के लिए कष्ट सहना), ईश्वरप्रणिधान (ईश्वर की शरणागति लेना). यह सूक्ष्म साधना का आरम्भ है. साधक को इन गुणों का आचरण करना ही होता है. इनमें प्रत्येक गुण की अपनी ही शक्ति है. सदा सत्य बोलने से हमारी प्रत्येक बात सत्य हो जाती है और हमें कभी झूठ बोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती. मन वाणी शारीर से किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाना ही अहिंसा है; इसके पालन से अमोघ बल की प्राप्ति होती है एवं आस-पास का सारा वातावरण अहिंसामय हो जाता है. उस स्थान पर स्वाभाविक वैर भाव रखने वाले प्राणी (यथा सांप-नेवला) भी अपना वैर त्याग देते हैं. अस्तेय अर्थात चोरी नहीं करना; इसके पालन से संसार की समस्त वस्तुएं इच्छा/आवश्यकता न रहने पर भी स्वतः प्राप्त हो जाती हैं. ब्रह्मचर्य का अर्थ है वीर्य की रक्षा करना व मैथुन का मन, वाणी, शारीर से त्याग कर देना; इसके पालन से मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रियों आदि में अपूर्व साहस एवं बल प्राप्त हो जाता है एवं शारीरिक, मानसिक एवं, बौद्धिक कार्यक्षमताओं में कई गुण वृद्धि हो जाती है. अपरिग्रह का अर्थ है जीवन सम्बन्धी न्यूनतम आवश्यकताएं ही पूरी करना, अनावश्यक धन एवं वस्तुओं का संग्रह नहीं करना; इसके पालन से पूर्वजन्मों का ज्ञान हो जाता है और मन भीतर कि और उन्मुख हो जाता है और योग साधना का मार्ग तेजी से खुलता है. शौच का अर्थ है शरीर, वस्त्र, माकन एवं मन व विचारों की पवित्रता एवं राग, द्वेष, घृणा,क्रोध आदि मालों का नाश करना; इसके पालन से अपने अंगों में वैराग्य एवं दूसरों से संसर्ग न करने की इच्छा उत्पन्न होती है. अर्थात इससे शरीर में आसक्ति नष्ट होती है जिससे योग साधना कि गति बढ़ जाती है. संतोष का अर्थ है जिस अवस्था या परिस्थिति में रहना पड़े उसमे संतुष्ट रहना, वासनाओं को कम करना, दूसरों की सम्पदा देखकर ईर्ष्या न करना; इसके पालन से मन का इधर-उधर भागना बंद होता है एवं मन में कोई इच्छा न रहने पर समस्त इच्छाएं स्वतः पूरी हो जाती हैं. तप का अर्थ है साधना के दौरान जो-जो मानसिक एवं शारीरिक कष्ट प्राप्त होते हैं उन्हें ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार कर लेना; इस प्रकार ईश्वर के लिए कष्ट सहन करने से पाप नष्ट होते हैं और पुण्य पुष्ट होते हैं एवं शरीर एवं इन्द्रियां पूर्णतः अपने वश में आ जाती हैं. स्वाध्याय का अर्थ है उन ग्रंथों का अध्ययन करना जिनसे योग साधना में रूचि बढती है एवं अपने कर्तव्यबोध का उदय होता है एवं अपने मूल स्वरुप आत्मा व परमात्मा सम्बन्धी तत्त्व रहस्य का पता लगता है. इसके निरंतर अभ्यास से साधक को अपने इष्ट देव का साक्षात्कार होता है और ये इष्ट देव ही उसे परमात्मबोध का (मुक्ति का)मार्ग दिखाते हैं, और योग साधना में आने वाली बाधाओं को दूर करते हैं. ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है अपने-आप को ईश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर देना. ईश्वर को ही अपना स्वामी, माता-पिता, गुरु, सर्वस्व मानकर, अपनी समस्त इच्छाओं का त्याग कर, सद ईश्वर की आज्ञा का पालन करना एवं स्वयं को ईश्वर के अधीन मानना, ईश्वर से प्रेम करना एवं भक्तिपूर्वक उनका गुणगान करना, यही ईश्वर शरणागति है. यह अकेला ही इतना सशक्त साधन है कि केवल इसके आचरण मात्र से ही परमात्मबोध हो जाता है. ऋषियों ने इस गुणों को यम-नियम भी कहा है. पांच यम हैं सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पांच नियम हैं शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान. इन गुणों के पालन के समय इनके विरोधी विचार असत्य, हिंसा, चोरी, काम-वासना, संग्रह, अपवित्रता, असंतोष, कष्ट, मन का उचटना, समय न मिलना आदि उत्पन्न होते है. ऐसा होने पर साधक को इनके विरोधी विचारों यानि यम नियम का ही बारम्बार विचार व आचरण करना चाहिए, इससे ये विकार शांत हो जाते हैं. भगवन श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बार-बार श्रवण के लिए प्रेरित किया है :- एषा तेsभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु || २.३९ || अर्थात, मैंने तुम्हारे लिए सांख्य योग कहा अब तुम बुद्धि योग के विषय में सुनो. भूय एव महाबाहो श्रुणु मे परमम् वचः || १०.१ || अर्थात, हे अर्जुन! तुम मेरे परम पवित्र वचनों को सुनो. हंत ते कथयिष्यामि दिव्यः ह्यात्मविभूतयः || १०.१९ || अर्थात, मैं अपनी दिव्या विभूतियों को तुमसे कहता हम तुम इसे सुनो. परम भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम || १४.१ || अर्थात, मैं समस्त ज्ञानों में भी श्रेष्ठ ज्ञान को तुमसे कहता हूँ, तुम इसे सुनो. सर्वगुह्यतमं भूयः श्रुणु मे परमं वचः || ८.६४ || अर्थात, हे अर्जुन! तुम मेरे सबसे अधिक गोपनीय परम पवित्र वचनों को सुनो. इस प्रकार श्रवण का सतत अभ्यास करने से साधक के मन में विवेक उत्पन्न होने लगता है. तब वह सत्य-असत्य, नित्य-अनित्य का मनन (विचार) करने लगता है. इस प्रकार योग क्रम व्यवस्था का तीसरा पड़ाव आता है, जिसका नाम है मनन. |
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