Yoga Principle defines System of Yoga. First step is yoga initiation, second step is hearing or study thrid step is contemplation, fourth step is meditation and fifth is samadhi or realization of supreme self Yoga Initiation or Diksha is the first step of yoga principle in which guru transmits power in student to cut his illusionsecond step of yoga principle is Hearing or Study holy books to know the godthird step of yoga principle is contemplation in which devotee contemplate on what he heard and/or studied about god and how to know the supreme self (the God)Fourth step of Yoga principle is meditation in which devotee meditate of verses, form of god etc to realize the God      fifth and the last step of Yoga Principle is realization of Supreme Self or God

 

 

प्रेम ही ईश्वर है

Love is God.

God is Love.

योग पद्धति >> योग का क्रम >> ध्यान

ध्यान

ध्यान का अर्थ है ध्येय विषय में मन का एकतार चलना. योग के सन्दर्भ में ध्येय विषय ईश्वर है, अतः ईश्वर के बारे में बार-बार सोचने पर मन का ईश्वर में ही एकतार चलना, अन्य कोई भी विचार मन में उत्पन्न नहीं होना ही ध्यान है.  योग पद्धति के तीसरे क्रम मनन का अभ्यास करने पर जब मन के समस्त द्वंद्व शांत हो जाते हैं विषय भोगों में आसक्ति, कामना और ममता (यह मेरा है, यह तेरा है) का अभाव हो जाने पर मन एकाग्र हो जाता है.  सत्शास्त्रों के विवेक-वैराग्यपूर्वक अभ्यास करने से साधक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है और उसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मतत्त्व को ग्रहण करने की (अनुभव करने की) योग्यता अनायास ही प्राप्त हो जाती है. उसके मन के सरे अवगुण नष्ट हो जाते हैं और सारे सद्गुण उत्पन्न हो जाते हैं. उसके मन में यह दृढ निश्चय हो जाता है कि संसार के सरे पदार्थ माया का कार्य होने से अनित्य हैं अर्थात वे हैं ही नहीं और एकमात्र परमात्मा ही सर्वत्र समभाव से परिपूर्ण है.  सब कार्य करते हुए भी उसे यह अनुभव होता रहता है कि "यह काम मैं नहीं कर रहा हूँ. मैं शारीर से पृथक कोई और हूँ." इस प्रकार उसके मन में कर्तापन का अभाव हो जाता है. परमत्मा के स्वरुप में ही इस प्रकार जब गाढ़ स्थिति बनी रहती है, जिसके कारन कभी-कभी तो शारीर और संसार का विस्मरण हो जाता है और एक अपूर्व आनंद का सा अनुभव होता है तो इसे ही ध्यान कहते हैं. उस समय ईश्वर में ही मन एकतार चल रहा होता है. ध्यान कोई विलक्षण क्रिया नहीं है. संसार का प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन केवल ध्यान ही करता है. उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति से यह पूछा जाये कि आप इस समय कितनी प्रकार की आवाजें सुन रहे हैं तो निश्चित रूप से उसका उत्तर होगा "पता नहीं". क्यों? क्योंकि, उस व्यक्ति का ध्यान अपने कार्य में होता है और वह उसमे इतना तल्लीन होता है कि उसे यह पता ही नहीं होता कि कितने प्रकार की ध्वनियाँ उसके कानों से टकरा रही हैं. इसी को ध्यान कहते हैं. योग के सन्दर्भ में वह कार्य, वह लक्ष्य ईश्वर है जिसका ध्यान करने से सारे संसार का विस्मरण हो जाता है.

मन को ईश्वर में लगाने पर एवं ईश्वर के सगुन या निर्गुण स्वरुप का ध्यान करने पर, जब संसार का विस्मरण हो जाए, अपने शारीर का अनुभव भी होना बंद हो जाये, और एक दिव्य तेज या ईश्वर का धुंधला सगुण रूप या शून्यता का अनुभव होने लगे तो इसे ध्यान द्वारा प्राप्त आत्मबोध या ईश्वर साक्षात्कार की प्रथम अवस्था समझना चाहिए.

साधक/शिष्य चाहे किसी भी मार्ग (हठ योग, ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग, राज योग) से चले उसे ध्यान करना ही पड़ता है. क्योंकि सभी मार्गों का सार ईश्वर का सदा स्मरण करते रहना है और यह नियम है कि जिस-जिस वास्तु का बारम्बार स्मरण किया जाता है उसमें मन एकतार चलता ही है और उसी-उसी वास्तु का अनुभव होता ही है. इसलिए इश्वर का बारम्बार स्मरण करने पर ईश्वर में ही मन एकतार चलने लगता है जिसे ध्यान कहते हैं. आर लम्बे समय तक ध्यान करने से उस ईश्वर का अनुभव समाधि के द्वारा अवश्य ही होता है.

गुरु के सान्निध्य में जब शिष्य ध्यान करता है तो ध्यान के दौरान होने वाले अनुभवों के विषय में गुरु से विचार विमर्श करके वह अपनी साधना को आगे बढाता है और सफलतापूर्वक समाधि तक पहुँच जाता है. परन्तु जो साधक बिना गुरु के या ईश्वर को ही अपना गुरु मानकर अपनी साधना कर रहे हैं, उन्हें इन दिव्य अनुभवों के विषय में प्रमाण कम मिलता है या नहीं मिलता है जिसके कारण वे घबराकर साधना का मार्ग छोड़ देते हैं.

इस प्रकार के साधकों की सुविधा के लिए अनेक प्रकार के ग्रंथों से प्रमाण एवं अनेक संतों के व्यक्तिगत अनुभव लेकर उन्हें एक स्थान पर एकत्रित कर यहाँ लिख रहे हैं जिससे वे साधक अपनी साधना बीच में नहीं छोड़ें. ध्यान की शास्त्रोक्त विधियों को अपनाकर एवं साधना में आने वाले विघ्नों व उनके उपायों को जानकर ईश्वर की कृपा से समाधि तक अवश्य पहुंचें.

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